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Book Summary
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Annotated Matter After the 1967 Fourth Genegal Elections the monopoly of the Congress came to an end, and there was a drastic change in the working of governors in the States. They made misuse of their powers in the nomination of members and dismissing state governments at the behest of the centre. The author has critically analysed the working of the governors vis-a-vis the state governments ruled by non-Congress government.
समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों में राज्यपाल का पद प्रासंगिक, विषय बनता जा रहा है। राज्यपाल की कार्यशैली में, समय के साथ-साथ परिवर्तन आता जा रहा है। सन् 1967 के चतुर्थ आम चुनाव के पश्चात्, कांग्रेसी एकाधिपत्य टूटते ही उत्तर प्रदेश में राज्यपालों की भूमिका मंे क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। केन्द्रीय सरकार के निर्देशानुसार कार्य करने तथा दलीय राजनीति से सम्बद्ध होने के आरोपों सहित, उन पर विचारधारा व महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत ‘स्वविवेक’ के मनमाने प्रयोग के आरोप भी लगाये गये। राज्यपालों ने स्वविवेक के सर्वाधिक प्रयोग तभी किये जबकि केन्द्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों की सरकारें रहीं और विवेकीय निर्णय अधिकांशतः प्रादेशिक सरकारों के विरूद्ध जाते रहे। पुस्तक में राज्यपाल विश्वनाथ दास से लेकर राज्यपाल टी.वी. राजेश्वर राव तक के कार्यकाल का अध्ययन किया गया है। इसके अंतर्गत राज्यपाल पद के उद्भव, विकास व नियुक्ति, 1967 से पूर्व विभिन्न राज्यों के राज्यपालों की कार्यप्रणाली का तुलनात्मक अध्ययन, राज्यपालों द्वारा मुख्यमंत्राी की नियुक्ति-बर्खास्तगी व सदस्यों के मनोनयन, राज्यपाल का विधान-मण्डल से सम्बन्ध, राज्यपाल के विधि सम्बन्धी अधिकार, राज्यपाल के प्रशासनिक प्रधान व कुलाधिपति के रूप में कर्तव्य तथा केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल की भूमिका का विश्लेषण किया गया है।
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Book Content
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