बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रो. सत्यपाल ‘बेदार’ ‘सरस’ एक श्रेष्ठ प्राध्यापक, कवि, वक्ता, विचारक एवं चिन्तक थे। इनका जन्म 13 अक्टूबर सन् उन्नीस सौ इक्त्तीस में डेरा गाजी ख़ान (पाकिस्तान) के छोटे से गाँव ‘झोक उत्तरा’ में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रामचन्द मदान था जो यूनानी आयुर्वेदाचार्य थे। इनकी माता श्रीमती तग्गी देवी थी जो अत्यन्त सुसंस्कृत एवं धार्मिक महिला थी। अल्पायु में ही इनकी माता जी का निधान हो गया जिस कारा इनका आरंभिक जीवन अत्यन्त संघर्षर्पूा एवं विपत्तिजन्य रहा। इनके जीवन का उद्देश्य विपत्तियों एवं कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर उन्नति के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ होना था। पुरुषार्थ उनके जीवन का मूल मंत्रा रहा। वे पुरुशार्थ को प्रारब्ध से भी श्रेष्ठ मानते थे। उन्हीं के शब्दों में पुरुषार्थ समस्याओ का हल होता है, प्रारब्ध तो पुरुशार्थ का फल होता है। प्रारब्ध को सब कुछ समझने वालो प्रारब्ध से पुरुशार्थ प्रबल होता है।
अपने पुरुशार्थ-बल पर ही उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए., एम. लिट् तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त की। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक पद पर कार्यरत रहे और प्रवाचक ;त्मंकमतद्ध पद से सेवानिवृत्त हुए। डाॅ. ‘बेदार’ ‘सरस’ जी हिन्दी के तो उच्च कोटि के विद्वान थे ही, उर्दू, फारसी के भी विशेषज्ञ थे। हिन्दी में एम.ए. करने के पश्चात् उन्होंने ‘उमर खैयाम की रुबाइयों’ पर ‘एम. लिट’ किया तत्पश्चात् ‘हिन्दी-उर्दू कविता में छन्द विधान (तुलनात्मक अध्ययन)’ विषय पर शोध ग्रन्थ लिखा। इस ग्रंथ को विद्वान परीक्षकों ने ‘डी.लिट’ की उपाधि के स्तर का आंका जो इनके लिए अत्यन्त गौरव की बात थी। प्रो. ‘सरस’ जी ने अनेक मौलिक एवं अनुवादित रचनाएँ लिखीं। मौलिक रचनाओं में ‘आकाश गंगा’, ‘दिव्यालाप’ (उपालंभ प्रत्युपालम्भ) एवं ‘ऋषि राज’ उल्लेखनीय हैं। ‘आकाश गंगा’ में भारतीय परिवेश की 46 कालजयी विभूतियों का संगीतमय पद्यात्मक-यशोगान किया गया है। ये रचनाएँ काफी लोकप्रिय रही। अनुवादित रचनाओं में ‘गीता माधुरी’ की विशेष रूप से सराहना की गई। ‘गीता माधुरी’ में उन्होंने सरस, सरल एवं प्रवाहमयी भाषा में श्रीभद्भगवत् गीता के श्लोकों का पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है। यह पद्यानुवाद हिन्दी के सुमेरू छंद में निबद्ध है। ‘गीता-माधुरी’ उन गीता प्रेमियों के लिए वरदान है जो संस्कृत भाषा के सम्यक् ज्ञान से वंचित हैं। प्रो. ‘बेदार’ ‘सरस’ जी ने ‘श्रीमद्भगवत् गीता’ का पद्यानुवाद केवल हिन्दी भाषा में ही नहीं किया अपितु सिरायकी भाषा में भी किया है। सिरायकी भाषा प्रेमियों के लिए ‘सिरायकी गीता’ गीता के मर्म को समझने में सहायक सिद्ध हुई है। सिरायकी में उन्होंने काफियाँ, गज़ले, नज़्में, तथा पुलहाड़ों की भी रचना की। गज़ल, रुबाई, कविता, मुक्तक और हास्यव्यंग्य की रचनाएँ उन्होंने हिन्दी तथा उर्दू दोनांे भाषाओं में लिखी। उर्दू में उन्होंने बिहारी, तुलसी और कबीर के दोहों का भी पद्यानुवाद किया है। आर्य समाज संस्था से इन्हें विशेष लगाव था। आर्य समाज के सिद्धान्तों पर इनकी गहन आस्था थी। महर्षि दयानंद सरस्वती के वे दीवाने थे। महर्षि दयानंद पर ओजर्पूा शैली में रचित रचना ‘अमृत पीकर भी जग मरता, तुम अमर हुए हो विष पीकर’ बहुत लोकप्रिय रही। कई वैदिक मंत्रों का पद्यानुवाद उन्होंने हिन्दी, उर्दू तथा सिरायकीय तीनों भाषाओं में किया है। आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में भी इन्होंने महत्वर्पूा योगदान दिया। इनकी वक्तृत्व कला भी अद्वितीय थी। डाॅ. ‘बेदार’ ‘सरस’ जी अध्यात्म तथा साहित्य-साधना में जीवन पर्यन्त तत्लीन रहे। वे सादा जीवन और उच्च विचार में गहन निष्ठा रखते थे। उन्होंने अपना सम्र्पूा जीवन तपस्वी की भांति व्यतीत किया। वे शांत, सरल एवं निश्छल स्वभाव के व्यक्ति थे। उनकी स्मराशक्ति भी अत्यन्त अद्भुत थी। उन्हें अनेक स्वरचित रचनाओं के साथ-साथ हिन्दी की प्रसिद्ध सहस्त्रों कविताएँ, गीत, दोहे एवं उर्दू फारसी का कलाम भी कठस्थ था। अपनी ओजर्पूा वााी से वे जब उनका प्रसंगानुरूप वाचन उच्चारा करते थे तो श्रोता मंत्रा मुग्ध से हो जाते थे। अध्यात्म एवं साहित्य जगत की यह दिव्य ज्योति अक्स्मात् 30 अगस्त 2011 को परम-पिता परमात्मा की असीम ज्योति में विलीन हो गई। उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं कृतित्व सदैव पथप्रदर्शक एवं प्ररेाा स्त्रोत रहा है।
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